इसीलिए मन कर रहा है लिखने का
..........अपने साथ चुड़ा-गुड़, सत्तु और ठेकुआ की पोटली लेकर भाई लंदन पहुंच गया है।
उसी लंदन में जिसको हम पहली बार डीडीएलजे फिल्म में देखे थे। फिल्में एकदम से डूब कर
देखते हैं इसीलिए सिमरन जब यूरोप घूमने गई थी तो इसी बहाने हम भी कल्पना के यूरोपिय
आसमान में थोड़ा-बहुत घूम आये थे। हालांकि अब तो लंदन के बारे में बहुत सारा देख
और पढ़ लिया है। अबकी बार भाई लंदन पहुंचा है। उसके साथ हम भी इंटरनेट के माांझे से युक्रित श्तों की डोर थामे
व्हाट्सएप पर लंदन घूम रहे हैं। उसका भेजा हुआ फोटो देखकर कभी-कभार मन करता है कि
स्विम सूट पहिन के फोटो वाले स्विमिंग पूल में घुस जायें। खूब सारा तैर कर जब थक
जायें तो होटल वाले कमरे के गद्दीदार बेड पर पसर कर सो जाएं।
माई लंदन पहुंच गइल बानी........
.......उस उम्र में जब आजकल के लड़के इशकबाजी की असीम हद में स्लिंग बैग लटकाए हुए
बालों में ब्रील क्रीम लगाकर ड्यूड बने घूमते हैं। तुम गमछा लटकाए कंधे पर कुदाल
रख कर खेत रोज सुबह खेत में निकलते थे। आज तुम्हारी उमर के ही कुछ लड़के दिल्ली,
बंबई, पुणे, बैंगलोर और दूसरे मेट्रो और
मिनी मेट्रो शहरों में आफिस के हेक्टिक शेड्यूल से थके-मांदे अपने कमरे में आकर सिगरेट
का कश लगाते हुए लंदन जाने के सपने देख रहे हैं। तुम हीथ्रो एयरपोर्ट से माई को
फोन किए हो- माई, हम लंदन पहुंच गइनी। आफिस के कार लेवे आ गइल बिया। होटल जाके फोन
करब।
आते हैं मुद्दे पर
भाई….! अपने देश में पता नहीं कितने लोग लंदन गए हैं, जाते हैं और जाते भी रहेंगे।
कोई नौकरी के लिए जाता है तो कोई घूमने वास्ते। किसी की पढ़ाई भी होती है तो कोई
वैकेशन टूअर मनाता है। तुम खुद ही बता रहे थे कि जिस फ्लाइट से हीथ्रो एयरपोर्ट के
लिए उड़ान भरे थे उसमे सात-आठ दर्जन अपने देश वाले ही थे। लिखने से पहले पढ़ना
चाहा तो पता लगा कि महीने में औसतन पांच हजार से अधिक भारतीय लंदन जाते हैं। पर
गौर करो..! सबके जाने पर हम
लिखते तो नहीं हैं ना। कुछ ऐसे भी लोग जाते हैं जिनके जाने पर मुझे लिखना चाहिए
था। समाज के लिए। नहीं लिखने के लिए समाज से माफी। आज तुम्हारे लिए लिख रहे हैं।
यूं मत समझना कि तुम मेरे भाई हो, तुम्हारे लंदन जाने पर पूरे परिवार को नाज है,
ढेर सारा पैसा लेकर आओगे... फलाना, ढ़िमकाना..। इसके लिए कतई नहीं लिख रहे हैं।
मेरे लिए इनके मायने बहुत कम हैं। तुम जानना चाहोगे कि फिर हम तुम्हारे लंदन जाने
पर काहे लिख रहे हैं?? लो जानो.....
तुमसे अधिक जिम्मेदार इंसान दुनिया में नहीं मिला है..
भाई..! याद है... पहली बार
जब हम दोनों ने एक क्विज प्रतियोगिता जीती थी। पापा साइकिल से बिठाकर पुरस्कार
वितरण समारोह स्थल (बिराहीपुर हाई स्कूल) तक ले गए थे। हाफ-पैंट पहन कर दोनो
भाई पहुंचे तो पुरस्कार देने वाले शिक्षक भी अचरज से देख रहे थे। हम छठवी में थे और
आप आठवीं में। पुरस्कार स्वरूप दोनो को 500-500 रुपये मिले। पहले से तय था। बैडमिंटन
के रैकेट और कैरमबोर्ड खरीदना है। सबकुछ खरीदने के बाद भी पैसे बच गए थे। हम कुछ
और भी खरीदना चाह रहे थे, पर घर की माली हालत ठीक नहीं थी। उस वक्त पापा किसानी
करके घर चला रहे थे। आपने हमें समझाया और फिर दोनो भाई बाकी के बचे पैसे पापा को
दे दिए। शायद वो हम दोनों की पहली संयुक्त कमाई भी थी। पहली बार तभी अहसास हुआ आप
इस स्तर तक सोचते हैं। वरना उस वक्त के हमारे समाज में 12 साल के एक लड़के को
खेलने-कूदने और ना चाहते हुए भी रात को लालटेन जला कर पढ़ने के अलावा सोचने का
मौका कहां मिलता था। दसवीं कक्षा में पढ़ते हुए तुमने एक नाटक लिखी थी। उमर चौदह
की थी। “बंटवारा” शीर्षक से भोजपुरी में लिखे
गए उस नाटक की पाण्डुलिपी आज भी बहुत जतन से रखी है मैनें। अब जब उस नाटक को पढ़ता
हूं तो बरबस ही भिखारी ठाकुर के नाटक का स्मरण हो आता है। पर उस वक्त ना आप भिखारी
ठाकुर के बारे में इतना जानते थे और ना ही हम। उस उमर में वैसा दृष्टिकोण कहां से
आया था? भिखारी ठाकुर ने तो
नाटक करना तब शुरू किया था, जब वे कलकत्ता से कमा कर रिटर्न आए थे।
तुमसे बेहतर किसी को जानते भी तो नहीं..
मां कहती है कि मेरा जन्म होने पर आप सबसे अधिक खुश थे। जन्म लेने के बाद
अस्पताल में दो हफ्ता बिता लेने पर घर आना हुआ था। इसकी भनक आपको भी मिल गई थी।
तांगे से उतारकर मां जब मुझे ला घर ला रही थी तब आपने सबसे पहले मुझे देखा था। फिर
फौरन घर आकर सबसे बोल रहे थे- “हमार माई लाल-लाल बबुआ ले आवतीया”। हमने साथ चौदह साल बिताए
हैं। खाना, सोना, जगना, पढ़ना, खेलना...सब एक साथ। आपको एक बात शायद पता नहीं हो
पर मुझे लगता है कि मैं आपको सबसे बेहतर जानता हूं। उन 14 सालों में आपने मुझसे हर
एक बात शेयर की थी। मैं शैतान था, इसीलिए मेरी बहुत सी बातें आपको अब तक नहीं पता है।
आपके पास छुपाने के लिए कुछ था ही नहीं।
आप तो देहाती गंवार थे..
बचपन में हमारी एक गाय होती थी। लेकिन मुझे उससे कोई खास मतलब नहीं था। आप
चारा के लिए घांस लाने जाते थे। बोझा बना के सर पर ले आते थे। गाय तो पूरे परिवार
की थी पर पाल तुम ही रहे थे। छुट्टा के दिन में एक बार गाय शाम होने तक नाद पर नहीं
आयी। आप खोजने निकले। देखा-देखी हम भी साथ हो लिए। बहुत खोजने के बाद पता चला कि गाय
को फाटक में चली गई है। (ऐसी गायें जो किसी का फसल बर्बाद करते हुए पकड़ी जाती हैं,
उन्हें फाटक में लेकर चले जाते हैं। मुआवजे की रकम देने के बाद ही गायों को छोड़ा
जाता है) आप बिलखने लगे। सच कहें तो पहली बार आपको तभी रोते हुए देखे थे। हम भी
देखा-देखी रोने लगे। बाद में पापा नें पैसा देकर गाय छुड़ा लिया। लेकिन गाय के
जाने के गम में तुमने आसमान सिर पर उठा लिया था।
यहां से मिली देहाती गंवार की कथित उपमा
तुम कुदाल लेकर बगीचे में जाते थे। गाय के लिए घांस काट कर लाते थे। कई रातें
बगीचे में आम चुनते हुए ही गुजार दी। एकदम शांत, गंभीर और तोतली आवाज में ठेठ
भोजपुरी बोलते थे तो लोग कहता था- एकदम से देहाती गवांर है। बाल सीधे हों या मुड़े
हुए, हाफ पैंट पहनी हो या बेल-बटम और दोनो पैरों में अलग-अलग जोड़े वाले तीन जगह
से सिले हुए हवाई चप्पल। तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। शायद इसीलिए सब देहाती
गंवार कहते थे।
और सिर्फ इसीलिए लिख रहे हैं..
क्योंकि तुम्हें सबसे अधिक मेरी चिंता रहती है। कहां हूं, कैसा हूं, क्या
जरूरत है, क्या नहीं है.. आदि, आदि। हद तो तब हो होती है जब मैं मैसेज करता हूं—“प्रणाम भइया”। उधर से जवाब आता है- “हां बोलो क्या चाहिए”। मेरे सबसे कठिन दौर में
सबकुछ जानते हुए भी (जो सिर्फ और सिर्फ मेरी वजह से है और हुआ था) हमेशा मेरे साथ
खड़े रहते हो। और मुझे देखो- रात को बगीचे में आम चुनते हुए एक बार तुम्हें सांप
ने काटा था। घर आए तो सब चित्कार करने लगे। मुझे भी पता चला। मैं वही आम खा रहा था,
जो तुमने एक दिन पहले चुन कर लाया था। सबको रोता देख आम आधा खाकर रख दिया। दुआर पर
गए तो पता चला कि डोंड़ सांप ने काटा है। तुम सबसे आराम से बतिया रहे थे, लोगों के
पूछने पर सांप का हुलिया बता रहे थे और माई को ढांढस बंधा रहे थे। हम देखे तो वापस
घर चले आए, और अपना आधा बचा हुआ आम खाने लगे। तुम तो पहिले से ही जानते हो हम कैसे
हैं... पर एक बार पुनःस्मरण होने पर हंसना मत।
तुम धोखे से बैंकर बन गए..
तुम तो गांव से इंजीनियरिंग करने के लिए पुणे गए थे। धोखे से बैंकर बन गए। इंजीनियरिंग
में ऐडमिशन लेने के लिए महाराष्ट्र सीईटी की परीक्षा में 736 रैंक लाए थे। पर हुआ
उल्टा। घर में उतना पैसा नहीं था कि इंजीनियंरिंग वाले कॉलेज में ऐडमिशन दिलाया
जाये। बड़का भाई चाहते हुए भी मजबूर था। तुमसे बिना बताए बीबीए में दाखिला करा
दिया। तुम भी देहाती आदमी, जब कॉलेज जाना शुरू किए तो जाने कि इंजीनियरिंग नहीं बिजनेस ऐडमिनिस्ट्रेशन पढ़
रहे हो। इसीलिए हम इसको धोखा कहते हैं।
यू आर मोर दैन ए कंप्यूटर इंजीनियर
...पता नहीं, तुम इंजीनियरिंग पढ़ते तो लंदन जाते की नहीं। पर भाई, ये कभी मत
भूलना कि तुम देहाती गवांर थे। तुम भले ही अब बैंकर बन गए हो, पर मुझे ये भी पता
है कि तुम अच्छे-खासे कॉलेज से पढ़े एक कंप्यूटर इंजीनियर पर भारी पड़ोगे।
तुम्हारा बैंकर बनना अपने आप में एक कहानी है। वो तुम ही लिखना। मुझसे बेहतर लिखते
हो। मुझे जो लिखना था लिख दिया...। थोड़ा-बहुत जो भी जानते हैं, इकोनॉमिक्स और
बिजनेस स्टडीज तुमने ही सिखाया है। हम भी उसी ओर रूख कर रहे है..... बहुत कुछ
सीखना बाकी है। लंदन से ज्ञान देते रहना।
तुम्हारा भाई...
गिरधारी